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टुटता तारा

जीजी माँ! जीजी माँ! उन्हें होश आ गया है, सब आपकी मेहरबानी है ऐसा कहते – कहते गौरी की आंखें नम हो गईं। ‘नहीं गौरी ऐसी कोई बात नही है, सब ईश्वर की कृपा है’ ऐसा कहते हुए सरिता ने ईश्वर का धन्यवाद दिया। नहीं जीजी माँ मेरे लिये तो आप ही ईश्वर बन कर आई हैं, आपने केवल इन्हें ही नहीं बचाया, बल्कि एक पूरा परिवार बचा लिया, मेरे बच्चे और मैं सदा आपके ऋणी रहेंगे। ऐसा कहते हुए गौरी व उसके बच्चे सरिता देवी के पांव पकड़ लेते हैं। ‘उठो गौरी! ऐसा मत करो, ईश्वर की कृपा तुम पर तुम्हारे बच्चों पर बनी रहे। अब तो बस चन्दर जल्दी स्वस्थ हो जाये’ सरिता ने कहा। आंखों में खुशी के आंसु लिए गौरी बोली जीजी माँ! डाक्टर साहब कह रहे थे कि ये जल्दी ही अच्छे हो जायेंगे।
चलो ठीक है, अब तुम जरा आराम कर लो मैं यहीं अस्पताल के बाहर बरामदे में बैठी हुँ, जब मेरी जरूरत पड़े मुझे बुला लेना यह कहकर सरिता अस्पताल से बाहर आ गई बरामदे में पड़ी एक बैंच पर बैठ गयी और सोचने लगी चलो सही वक्त पर सही निर्णय ले लिया तो एक जान बच गई और कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों का तो भला ही होगा, यही सोचते-सोचते सरिता अतीत में खो गई। उसकी भी जिन्दगी में भी कोई कम संघर्श नही रहे।
और यह आया अपना अतीत कैसे गाँव की एक भली सी साधरण कद काठी वाली लड़की का विवाह पिता के ही दोस्त जो शहर में रहते थे उनके इँजीनियर पुत्र से हुआ और सरिता गाँव से शहर आ गई। ससुराल में रिश्तेदारों के नाम पर केवल उसके पिता के दोस्त ससुर जी ही थे। शेखर उनका इकलौता पुत्र था। सासु मां का स्वर्गवास कोई चार-पाँच साल पहले हो गया था। किसी तरह जिन्दगी चल रही थी इसलिये उनके इकलौते पुत्र के लिये कोई सुशील संस्कारी पत्नि चाहते थे, जैसी उनकी पत्नि थी और अपने दोस्त की बेटी में उन्हें वे सब गुण दिखाई दिये। विवाह के पश्चात  साल दो साल तक सब कुछ ठीक रहा, परन्तु सरिता को शेखर की महत्वकांक्षाएं स्पश्ट दिख रही थी, वो अपनी तरक्की के लिये विदेश जाना चाहता था, परन्तु पिता नहीं मान रहे थे।
बुरा वक्त बता कर नहीं आता और एक दिन दिल का दौरा उसके ससुर के प्राण ले ही गया। ससुर जी की बारहवीं तक तो सब कुछ शांत रहा, किन्तु जैसे ही सारे मिलने वाले विदा हुऐ तो शेखर की महत्वकांक्षा ने फिर से सिर उठा लिया। अबकी बार रोकने वाला भी कोई न था। मानो सरिता का वजूद तो कोई मायने ही नही रखता था।
और एक दिन जैसे विस्फोट हो ही गया षेखर ने बताया कि वो अगले हफ्ते अमेरिका जा रहा है। उसे एक अच्छी कम्पनी में नौकरी मिल गई है। और वो जा रहा है, यदि वह चाहे तो अपने पिता के पास जाकर रह ले, जैसे ही कुछ व्यवस्था होगी मैं उसे बुला लूंगा। किन्तु सरिता जानती थी कि ऐसा कुछ नही होगा, और बिना सरिता का जवाब सुने शेखर अपने जाने की तैयारी करने लगा और एक दिन चला गया। षुरू में कुछ फोन आये किन्तु बाद में जैसी उम्मीद थी वही हुआ। अमेरिका की चकाचौंध में ऐसा खोया कि सरिता नाम मानो उसके मस्तिष्क से निकल ही गया। पिता ने कितनी बार कहा कि चल कर उसके साथ गाँव में रहे किन्तु वह नहीं मानी।
आखिर सरिता ने अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीने की ठानी। दसवीं पास तो वह थी ही आगे की पढ़ाई शुरू की व बी.ए. पास की और किसी तरह बी.एड. कर लिया और नौकरी करने लगी। कुछ समय पश्चात् पिता का भी निधन हो गया। गांव आते-जाते रहना भी बन्द हो गया।
अपने अकेलेपन से तंग आकर सरिता ने अपने घर का आधा हिस्सा कुछ पढ़ने वाली लड़कियों को किराये दे दिया। उसे लगा कि लड़कियों के साथ में कुछ समय बिताने को मिलेगा व वह भी कुछ नये जमाने की तकनीक सीख लेंगी। किन्तु एक दिन सरिता का यह भ्रम भी टूट गया जब वह चाय व नाश्ता लेकर लड़कियों के कमरे की तरफ गयी, दरवाजे के पास खड़ी उसने सुना की अभी बुढ़िया आती होगी उसे बुद्धु बना कर रखना ही ठीक है कम से कम अच्छा नाश्ता खाना तो मिलता ही रहेगा।
सरिता को काटो तो खून नहीं। क्या किसी को अपने बच्चे मान कर स्नेह देने का यही मतलब होता है? और उसने तय कर लिया कि वह अपना मकान खाली करवा लेगी। नहीं रखने ऐसे स्वार्थी लोग जिन्हें भावनाओं की कोई कद्र नहीं, और सरिता फिर अकेली रह गयी।
एक दिन विद्यालय से घर लौटते वक्त उसे अपने गांव का लड़का चन्दर दिखा सब्जी का ठेला लगाये हुए, जो दूर के रिश्ते में उसका भतीजा था, वो उसके पिता के खेत भी संभाल लिया करता था।
अरे चन्दर! पास की गल में ही मेरा घर है। चल घर चल कर चाय पीते हैं सरिता ने खुश होते हुए कहा। चलो जीजी! और धीरे-धीरे चन्दर के निश्च्छल व निस्वार्थ प्रेम से सरिता के मन की कटुता निकल गई और जब चन्दर ने कहा कि वह गांव से अपने बच्चों को शहर लाकर रखेगा ताकि वह अच्छे पढ़ लिख लें और उन्हें मेरी तरह ठेला न लगाना पड़े।
सरिता ने उससे कहा कि उसका इतना बड़ा घर है वह अपने बच्चों को यहीं ले आए। चन्दर कुछ उदास होते हुए बोला ‘पर जीजी मेरे पास इतना किराया नहीं है।’ तू मेरे लिये सगे भतीजे से भी ज्यादा है। बाबा के जाने के बाद गांव के खेत घर को तूने ही तो संभाला है। तो क्या मेरा कुछ फर्ज नहीं है। बच्चे घर में हसेंगे खेलेंगे तो मेरा भी मन लगा रहेगा।
चन्दर के बच्चे व पत्नी गौरी सरिता से घुल-मिल गये, वे सब उन्हें जीजी माँ कहकर बुलाते थे। समय तो अपनी गति से चलता ही रहता है, एक बार फिर समय ने सरिता की परीक्षा ली। सब्जी का काम-काज ठीक ठाक चल रहा था तथा बच्चे भी शहर के वातावरण में रम गये।
एक दिन चन्दर किसी गाड़ी से टकरा कर सड़क पर गिर पड़ा। अस्पताल ले जाने पर पता चला कि सिर पर गहरी चोट आई है व ऑपरेशन करना बहुत जरूरी है। चन्दर की पत्नी गौरी व दो छोटे बच्चे इन पर तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ा। सिवाय सरिता के उनको हिम्मत व सहारा देने वाला कोई न था।
सरिता एक बार फिर दुविधा में थी कि रिश्तों से तो उसने धोखा ही खाया है, स्नेह व प्रेम का भ्रम भी उसका टूट चुका था। पर क्या करे – क्या न करे, इसी ऊहापोह में बैठी सोच रही थी। डॉक्टर से बात करने पर पता चला की निर्णय शीघ्र लेना होगा।
जीजी माँ इनकी जान बचालो हम किसी तरह मेहनत करके आपका पैसा लौटा देंगे। मुझ पर व मेरे बच्चों पर दया कर दो। जीजी माँ आपके सिवा हमारा कोई नहीं है ऐसा कहते हुए गौरी व बच्चे रोने लगे। और सरिता आसमान की तरफ देखने लगीं। हाँ जीजी माँ! हमारे बाबा को बचा लो, मैं जब बड़ा होऊंगा तो आपका सारा पैसा लौटा दूंगा, बस एक बार बाबा को बचा लो। उस दस वर्श के बालक के मुंह से यह बात सुन तो सरिता सोचने लगी, हमेषा धोखे ही तो खाये हैं, क्या इस नन्हे बच्चे की पुकार भी धोखा है और यदि है भी तो क्या फर्क पड़ेगा।
मंदिर, मस्जिद, गौशाला, विद्यालय इन सबसे बड़ा दान इन्सान की जिन्दगी बचाना है। और फिर उसे अपने बाबा की कही बात याद आ गई, ‘बेटी जिन्दगी तारों सी होनी चाहिये, जब रहता है टिमटिमाता है और टूट कर गिरता है तो भी कोई न कोई अपनी चाह पूरी करने हाथ जोड़ ही लेता है’। क्योंकि टूटने का दर्द तारों से ज्यादा कौन जानता है वो तो किसी का ओहदा या पद नहीं देखता है। अपना या पराया भी नहीं सोचता, क्या हुआ चन्दर कोई दूर का रिश्तेदार है। पास वाले कौनसे ज्यादा…… आगे सरिता कुछ नहीं सोच सकी।
उसने तुरन्त जाकर डॉक्टर से बात की व अगले दिन सुबह ऑपरेशन हो गया। सरिता बरामदे में बेंच पर बैठी सोच रही थी कि गौरी व उसके बच्चेे आ गए और उसके विचारों की तन्द्रा टूटी। जीजी माँ इन्हें होष आ गया है व आपको याद कर रहे हैं।

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