जन्माष्टमी पर विशेष श्रंगार

मथुरा को श्री कृष्ण की जन्म भूमि माना जाता है आैर इसीलिए ये हिंदू धर्म को मानने वालों के लिए ये महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है। वैसे तो सारे साल ही या पूजा आैर आनंद का माहौल रहता है परंतु जन्माष्टमी आने के कर्इ दिन पहले ही यहां का वातावरण जैसे पूरी तरह कृष्णमय हो जाता है। जन्माष्टमी पर शहर के सभी मंदिरों को सजाया जाता है। इसमें मुख्य आर्कषण कृष्ण जन्मभूमि मंदिर ही होता है जो रात के समय रोशनी से नहा उठता है। इस दिन मंदिर को भव्य तरीके से सजाया जाता है। इस पर्व पर भगवान श्रीकृष्ण की मूर्तियों का श्रंगार किया जाता है आैर उन्हे नए वस्त्र और गहने पहनाएं जाते हैं।

मदनमोहन मालवीय की प्रेणना से हुआ वर्तमान मंदिर का निर्माण

मथुरा में भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि कहे जाने वाले स्थान को ना केवल देश में बल्कि पूरे विश्व में एक महत्वपूर्ण धर्मिक स्थल माना जाता है। लोग मथुरा शहर को भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान के रूप में ही जानते हैं। एेसा कहा जाता है वर्तमान मंदिर महामना पंडित मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से बनाया गया था। देश विदेश से हजारों की तादात में यहां पर्यटक भगवान कृष्ण से जुड़े इस पवित्र स्थान के दर्शन के लिए आते हैं।

स्वंय भगवान के प्रपौत्र ने बनवाया था पहली बार मंदिर 

एेसी मान्यता है कि पहली बार इस स्थान पर मंदिर बनवाने का कार्य स्वंय भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने किया था। इस बारे में पौराणिक कथाआें में कहा जाता है कि  युधिष्ठर ने परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को मथुरा मंडल के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया था। इसके पश्चात वे अपने चारों भाइयों भीम, अर्जुन, नकुल आैर सहदेव सहित महाप्रस्थान कर गये। तब वज्रनाभ ने महाराज परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के सहयोग से मथुरा राज्य को पुन: स्थापित किया। उस काल में वज्रनाभ ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। उसी क्रम में उसने भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली की भी स्थापना की आैर कंस के कारागार में जहा वासुदेव आैर देवकी कैद थे वहां मंदिर बनवाया। इसी स्थान पर भाद्रपद की कृष्ण अष्टमी की आधी रात को रोहिणी नक्षत्र में भगवान के अवतार लेने की बात कही जाती है। आज यह स्थान कटरा केशवदेव नाम से प्रसिद्व है। हालांकि समय के थपेड़ों आैर उचित संरक्षण के आभाव में ये मंदिर नष्ट हो गया। इसके बाद पांच बार इस मंदिर का पुननिर्माण किया गया। पांचवी बार में ये वर्तमान स्वरूप में सामना आया। बाकी चार बार का क्रम कुछ एेसा था।

प्रथम मन्दिर
ईसवी सन से पहले 80-57 के महाक्षत्रप सौदास के समय के ब्राह्मी लिपि  में लिखे एक शिलालेख के आधार पर कहा जाता है कि किसी वसु नामक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक मंदिर तोरण द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था।

द्वितीय मन्दिर
इसी प्रकार मान्यता है कि दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् 800 ईसवी के आसपास बनवाया गया था। बाद में ये सन 1017-18 में विदेशी आक्रमणों में मंदिर नष्ट हो गया।

तृतीय मन्दिर
संस्कृत के एक अन्य शिला लेख से ज्ञात होता है कि 1150 र्इसवी में जब महाराजा विजयपाल देव मथुरा के शासक थे उस दौरान जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक नया मन्दिर बनवाया था। यह विशाल एवं भव्य बताया जाता है। यह भी 16 वी शताब्दी के आरम्भ में आक्रमणों के दौरान नष्ट हो गया था।

चतुर्थ मन्दिर
माना जाता है कि मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शासन काल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नए आैर विशाल मन्दिर निर्माण कराया गया। ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने इसकी ऊंचाई 250 फीट रखवायी थी। उस समय इस निर्माण की लागत 33 लाख रुपये आई थी। इस मन्दिर के चारों ओर एक ऊंची दीवार का परकोटा बनवाया गया था, जिसके अवशेष अब तक विद्यमान हैं। दक्षिण पश्चिम के एक कोने में कुंआ भी बनवाया गया था इस का पानी 60 फीट ऊंचे मन्दिर के प्रागण में फौव्वारे चलाने के काम आता था। यह कुंआ और उसका बुर्ज भी आज तक विद्यमान है। सन 1669 ई॰ में पुन: यह मन्दिर नष्ट हो गया। इसके बाद वर्तमान मंदिर निर्मित हुआ।