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विष्णु जी ने कि थी पृथ्वी की रक्षा इसलिए मनार्इ जाती है वाराह जयंती

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इस वर्ष 12 सितंबर 2018 को वराह जयंती मनार्इ जायेगी। आइए जानते हैं कि ये क्या है आैर किस उपलक्ष्य में मनार्इ जाती है। मान्यता है कि भाद्रपद यानि भादों महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया को भगवान विष्णु अपने तृतीय अवतार वराह के रूप में अवतरित हुए थे। इसलिये इस माह की शुक्ल तृतीया को वराह जयंती के रूप में मनाया जाता है। चलिए आपको सुनाते हैं कथा कि क्यों भगवान विष्णु को वराह रूप में अवतार लेना पड़ा आैर उनके कोप का शिकार होने के बाद भी कौन था जिसे मोक्ष प्राप्त होकर स्वर्ग में स्थान मिला। इस बारे में दो कथायें प्रचलित हैं।

हरिण्याक्ष का वध आैर पृथ्वी का उद्घार 

भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि को चलाने के लिये मनु एवं सतरूपा की रचना की जिन्हें इस कार्य के लिए भूमि की आवश्यकता पड़ी। समस्या ये थी कि पृथ्वी हरिण्याक्ष नामक दैत्य के कब्जे में थी। जिसे सागर के तल में वह अपना तकिया बनाकर सोता था। वो जानता था कि पृथ्वी को हासिल करने के लिए देवता उस पर आक्रमण कर सकते हैं, इसलिये उसने सुरक्षा के लिए विष्ठा का घेरा बना रखा था। ब्रह्मा जी के सामने संकट था कि कोई भी देवता विष्ठा से पास नहीं फटकेगा ऐसे में पृथ्वी को मुक्त कैसे करवाया जाये। इसका समाधन भगवान विष्णु ने निकाला आैर कहा कि शूकर ही ऐसा जीव है जो विष्ठा के निकट जा सकता है। इसके बाद विष्णु जी ने ब्रह्मा जी की नासिका से वाराह को जन्म दिया और पृथ्वी को लाने के लिए कहा। अंतत: वराह रूपी विष्णु ने हरिण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को उसके चंगुल से मुक्त करवाया। जिस दिन वाराह रूप में भगवान प्रकट हुए थे वह भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी, तभी से इस दिन को वाराह जयंती के रूप में भी मनाया जाने लगा। दूसरी आेर क्योंकि भगवान के हाथों मृत्यु मोक्षदायिनी होती है इसलिए हरिण्याक्ष को बैंकुठ लोक में स्थान प्राप्त हुआ।

क्यों होते है दैत्य विशालकाय

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु नाम के दो पुत्रों ने जन्म लिया। बताते हैं कि इनका जन्म सौ वर्षों के गर्भ धारण के पश्चात हुआ था, इसीलिए वे अत्यंत विशालकाय थे। तभी से ये कहा जाने लगा कि दैत्य जन्म लेते ही बड़े हो जाते हैं, आैर इसी कारण दिति दैत्य माता कहलार्इं। हिरण्यकशिपु अत्यंत महत्वाकांक्षी था साथ ही वो अजेय आैर अमर होना चाहता था। उसने कठिन तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और वरदान में देव, दानव, मानव किसी के हाथों से न मारे जाने का वरदान प्राप्त कर लिया। इसके बाद देखते ही देखते उसने समस्त लोकों पर कब्जा कर लिया। शक्ति के मद में हरिण्यकश्यप ने वरूण देव को युद्ध के लिये ललकारा लेकिन वरूण ने कहा कि वे उससे टकराने का साहस नहीं रखते, अगर उसमें बल है तो भगवान विष्णु से युद्ध करे। वह विष्णु जी की खोज में चल पड़ा। इस दौरान नारदमुनि ने उसे बताया कि विष्णु जी वाराह अवतार लेकर पाताल से पृथ्वी को समुद्र से ऊपर ला रहे हैं। तब उसने अपने भार्इ हरिण्याक्ष वहां भेजा, जिसने देखा कि वाराह के रूप भगवान विष्णु पृथ्वी को अपने दांतो पर ला रहे हैं। उसनेविष्णु को ललकारा, तरह-तरह के कटाक्षों से उकसाने का प्रयास किया लेकिन भगवान अपने कार्य में ही लगे रहे। जब उन्होंने पृथ्वी को स्थापित कर दिया तब, हिरण्याक्ष से कहा कि सिर्फ बातें ना करके उन पर प्रहार करके दिखाए। इतना सुन कर हरिण्याक्ष ने वाराहरूपी विष्णु जी पर अपनी गदा से प्रहार किया, जिसे छीन कर भगवान ने दूर फेंक दिया। इसके बाद वह क्रोध में त्रिशूल लेकर भगवान पर झपटा, पर पलक झपकते ही उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से त्रिशूल के टुकड़े कर दिये। तब वह मायावी रूप धारण कर विष्णु जी को भ्रमित करने के प्रयास करने लगा, परंतु उसकी सभी युक्तियां नाकामयाब हो गर्इं आैर अतत भगवान से उसका अंत कर ब्रह्मांड को मुक्ति दिलार्इ।

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