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बिगड़ते और बेलगाम होते बोल …… राजनीति का स्तर गिराते धुरन्धर महारथी

इन दिनों पूरे भारत में चुनावी माहौल अपने पूरे चरम पर है। हर तरफ चुनावी धमाल नज़र आ रही है। पांच साल तक जनता की खबर नहीं लेने वाले राजनेता इन दिनों जनता के द्वार पर हाथ जोड़ते तकरीबन हर जगह नज़र आ ही जाते हैं। इस चुनावी समर में हर राजनैतिक पार्टी के शीर्ष नेता से लेकर छोटे से छोटा कार्यकर्ता पूरी तरह चुस्त दुरूस्त और सक्रीय नज़र आ रहा है। प्रायः यह माहोल हर पांच साल में देखने को मिलता रहता है अब जनता भी इस माहौल की पूरी तरह आदी हो चुकी है। मगर इस बार एक नई चीज़ देखने को मिल रही है वो है बदहवास, बोखलाहट और झुंझलाहट से भरे हुए नेतागण अपनी वाणी पर लगाम नहीं रख पा रहे हैं। हर कोई आपे से बाहर हो कर हद से गिरे हुए शब्दबाण चला कर अपने आप को बहादुर समझ रहा है। इन दिनों राजनीति में जो औछापन नज़र आ रहा है उतना पहले कभी शायद देखने को नहीं मिला।
न जाने इस बार राजनीति के धुरंधरों को नैतिकता त्यागने की होड़ क्यों मची है। नैतिकता को ताक पर रख दिया है। हर कोई खुद को सत्यवादी राजा हरिष्चन्द्र और सामने वाले को निम्न दर्जे का निकम्मा समझ रहा है। प्रायः यह हालात है कि शीर्ष नेता से लेकर छोटे कार्यकर्ता और सपोर्टर्स तक भारतीय संस्कृति और नैतिकता को पूरी तरह उतार कर रख चुके हैं। इस कदर भद्दे और बेतुके शब्दों का प्रयोग हो रहा है जिनका जिक्र करते हुए भी शर्म आती है। आखिर राजनीति में इस बिगड़ाव, नैतिक गिरावट और ज़हरीले व भड़कीले भद्दे शब्दों से आम जन को क्या फायदा होना है? ये तो वक़्त ही बताएगा। मगर यह साफ है कि इन बेहुदी और शर्मसार कर देने वाली इन हरकतों से देष में हालात बेहद बुरे ही होंगे। औछेपन की राजनीति से जनता के आम मुद्दे पूरी तरह से गायब हो चुके हैं।
लोकतंत्र में विरोधी को कभी दुष्मन नहीं माना जाता, पर हमारी राजनीति में विरोधी को दुष्मन मानने की होड़ सी मची हुई है। यही नहीं विरोधी को देष दुष्मन और अन्य कई स्तर से गिरे हुए शब्द तक बोलना श्रेष्ठ माना जा रहा है। हर कोई एक दूसरे को ज़लील करने पर उतारू है। यह साफ सुथरी राजनीति का संकेत नहीं है। इसके साथ ही राजनीतिक व्यवहार में और राजनेताओं की कथनी और करनी में लगातर गिरावट देखी जा रही है। नेता जी जिस भाषा और वाणी का उपयोग कर रहे हैं वह केवल चिंता का ही नहीं शर्म का विषय भी बनता जा रहा है। चिंता की बात यह है कि आचार संहिता की परवाह किसी को नहीं रही। जिसके मन में जा चाहा बोल दिया। चुनाव आयोग बिल्कुल निःसहाय नजर आ रहा है। आखिर चुनाव आयोग को उच्चतम न्यायालय की फटकार यह भी चिंता का विषय है। हालांकि चुनाव आयोग ने यह भी कहा है कि कोई कड़ी कार्यवाही करने का उसके पास अधिकार नहीं है, लेकिन विचारणीय है कि किसी नेता के चुनाव प्रचार पर रोक लगाने का मतलब उसका दोषी घोषित किया जाना ही है। लेकिन हमारी विडंबना यह है कि ऐसे अपराधी यह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि उन्होंने कुछ गलत किया है। ऐसे कई नेता है, जो विभिन्न अपराधों में जेलों में बंद हैं पर अपनी इस हालत पर उन्हें कोई शर्म नहीं है वे भी यह मान रहे हैं कि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया है। सच तो यह है कि हमारे नेता मानते हैं कि उनसे कोई अपराध हो ही नहीं सकता। वे तो गलत काम कभी करते ही नहीं हैं। जबकि हकीकत यह है कि उनके कथित गलत कामों में घूसखोरी से लेकर अभद्र भाषा का उपयोग तक सभी अपराध की श्रेणी में आते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई हैं के नेताओं के व्यवहार में गिरावट बढती जा रही है। इसी बार हमने देखा कि नेता सेरआम एक दूसरे पर खुल कर अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं एक दूसरे से हाथा पाई और जूतम पेजार तक कर रहे हैं। सभ्य समाज में अस्वीकार्य अनुचित टिप्पणियां कर रहे हैं। सरकारी पदों की कोई गरीमा नहीं बची है इन्होंने अपने स्वार्थ के लिए पद की गरिमा को तारतार कर दिया है।
आज की राजनीति में सिद्धांतों या आदर्षों के लिए कोई जगह बची नहीं है। पल में दलीय निष्ठाएं बदल जाती हैं और दल बदल करने वालों को लोकलाज या शर्म तक नहीं आती। भले ही वह व्यक्ति कल तक हमें गालियां ही क्यों न दे रहा हो। और तो और हद तब हो जाती है जब गाली देने वाला अपने शब्दों को गाली मानता ही नहीं है। हमारे राजनेता यह मान कर चल रहे हैं कि जनता को मूर्ख बनाना कतई गलत नहीं है। जनता को चाहिए कि ऐसे राजनेता जिनका अपनी जबान और कथनी पर काबू नहीं उन्हें हरगिज न चुने। चूंकि राजनेता जनता का नेतृत्व करता है तो उसका सभ्य होना बेहद जरूरी है।
हालात इतने खराब हैं कि यह सिर्फ सड़क तक सीमित नहीं हैं सदन में भी ये लोग अस्वीकार्य आचरण के अनेकों उदाहरण पेष कर चुके हैं इन्हें कोई लोकलाज या शर्म नहीं। क्या वास्तव में उन्हें नहीं पता कि चुनावों में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगना अपराध है? क्यो वे नहीं जानते कि लोकतंत्र में सरकार का विरोध करना देष-द्रोह नहीं होता? जनतांत्रिक व्यवस्था में आरोप प्रत्यारोपर स्वाभाविक है पर यह सब एक सीमा में होना चाहिए। इस तरह सीमा लांधने से कुछ भला नहीं होने वाला। राजनेताओं का इन दिनों जो आचरण हमें देखने को मिल रहा है वह सभ्य समाज और कानून के शासन का मजाक करता दिख रहा है। राजनीति में लगातार आती गिरावट और बढती फिसलन चिंता का विषय है। जनता को अपनी करनी से अपने कथित नेतृत्व को यह बाताना होगा कि वह राजनेताओं के अषोभनीय और अनुचित व्यवहार को स्वीकार कदापि नहीं करेगी। लोकतंत्र के इस महापर्व में औचित्य सिद्ध करने का सही तरीका गलत लोगों को अस्वीकार करना है।
राजनीति के लोभ में इन्होंने वास्तविक जनहित मुद्दों को न जाने कहां छुपा रखा है। क्या इस तरह बोखलाए, झुंझलाए, अषोभनीय भाषा और आचारण करने वाले लोग देष और जनता का भला कर पाएंगे, यह सोचने का विषय है। आखिर इस तरह ये लोग देष को किस दिषा में ले जाना चाहते हैं। क्या जनता उन्हें इसलिए चुन कर सदन में भेजती है कि उनका फाइटिंग सीन लाइव टीवी पर देख कर मनोरंजन करें। अगर जनता को फाइटिंग सीन देखना होगा तो सिनेमा घर ही काफी है। सिनेमा घर में फाइटिंग सीन देखने के साथ साथ कुछ को सकारात्मक सीख हासिल होगी कि आखिर इस सीन के पीछे के कारण क्या रह हैं। मगर सदन के फाइटिंग सीन का कोई फायदा ही नहीं केवल चरित्र हनन और जनता के वोट का मजाक मात्र है।
मोहम्मद यासीन फारूक़ी
(ये विचार लेखक के अपने स्वयं के है।)

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